गुरुदेवजी
का साक्षात्कार - I
दीक्षा
- गुरु वाणी
सदगुरुदेवजी का ये आशीर्वाद ही था की मुझे
परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री तेजसिंह जी राजावत (निखलेश) जी से साक्षात्कार करने
का मौका मिला, उनको जानने का मौका मिला और ये उनकी विशाल ह्रदय की महानता ही तो थी
की मैं उनके श्री चरणों में बैठ कर उनका सानिध्य प्राप्त कर सका l जीवन में दीक्षा
के महत्त्व को समझ सका l उन्होंने दीक्षा पर प्रकाश डालते हुए कहा था की वैसे तो सृष्टि
के समस्त चर-अचर, जीव-जंतुओं का सृजन और संहार परम ब्रम्हा परमेश्वर के आशीर्वाद से
होता है, लेकिन इस भू-मंडल में मनुष्य जीवन के उत्त्पत्ति का आधारशिला माता-पिता पर
निहित होता है l या यों कहे की हमारे जीवन की उत्त्पत्ति माता-पिता की देन होती है
l
मनुष्य जन्म लेता है और जन्म लेते ही सभी
क्रिया कलाप करने लग जाता है खाना खाने लग जाता है, सबको पहचान लेता है की ये मेरे
माता-पिता है, दादा-दादी, भाई-बहन, चाचा-चाची है, ये मेरे दोस्त है, वह दोस्तों के
पास जाकर खेलने लगता है, पुस्तक पकड़ कर पढ़ने चला जाता है, सामर्थवान बनकर जीवनयापन
करने लगता है l
ऐसा होता है
क्या?
नहीं न?
ऐसा नहीं होता
है ?
क्योंकि?
ऐसा संभव ही
नहीं है l
मनुष्य का जन्म तो हो जाता है पर मनुष्य एक बेजान
लाश की तरह पड़ा रहता है धीरे-धीरे वह बड़ा होता जाता है, जानने लगता है, समझने लगता
है, पहचानने लगता है l परिवार का, समाज का, देश का, ऋणी होकर शिक्षा प्राप्त करने लगता
है l जैसे-जैसे ये बड़ा होकर समाज में रहने लायक हो जाता है और अपने परिवार के दायित्त्वों
का पालन करने लगता है, अपने आप में इतना खो जाता है की वह समाज, देश, संस्कृति, आध्यात्म
और ईश्वर को भूल जाता है l उनके उन ऋणों को भूल जाता है, जिनको प्राप्त कर वह इस लायक
बना है l उन का बोझ, उन का पाप उसके मन को विचलित कर देता है और वह कई प्रकार के अनजानी
विपत्तियों, बिमारियों से घिर जाता है l जो कुछ भी वह प्राप्त किया रहता है सब नष्ट
हो जाता है या सब कुछ होते हुए भी वह संताप करने लगता है l कभी व्यर्थ की चिंताएं,
तो कभी मौत की चिंताएं मन को सताने लगती है, मनुष्य के मन में अपने आप का, अपने परछाई
का डर व्याप्त हो जाता है l
तब गुरु दीक्षा ही जीवन को एक नया मोड़
प्रदान कर सफलता का मार्ग प्रशस्त करता है जिससे मनुष्य मोह, माया, जाति, उंच-नीच आदि
का भेद त्याग कर अपनत्व को अंगीकार कर लेता है l सर्व जन हिताय, सर्व जन सुखाय ही उसका
उद्देश्य हो जाता है l वह समाज के, देश के सुख में सुखी होता है और दुःख में दुखी होता
है l वास्तव में देखा जाये तो जीवन का प्रारंभ यही से (दीक्षा से) ही होता है व्यक्ति
को पूर्णत्व प्रदान करने की इसी दुर्लभ प्रक्रिया का नाम ही दीक्षा हैं l
दीक्षा से ही मनुष्य में आध्यात्मिक शक्ति
का विकास होता है, सात्विक गुणों को प्राप्त कर वह अँधेरे से उजाले की ओर अग्रसर होने
में सक्षम हो पाता है और जब वह गुरु को आत्मसात कर लेता है तो वह सभी प्रकार के ऋणों
से मुक्त होकर परम ब्रम्हा को प्राप्त कर लेता है, मोक्ष को प्राप्त कर लेता है l इसलिए
यथा संभव गुरुचरणों में बैठ कर हर इन्सान को गुरु दीक्षा लेनी ही चाहिए l
गोकुल कुमार
पटेल
(इन
रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शक बन सकती है, आप की प्रतिक्रिया के इंतजार
में l)
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