पर ऐसा नहीं कि....
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पत्थर का पुजारी हूँ, पुजता हूँ पत्थर को,
इस पर लोहार सा प्रहार कैसे करूँ,
पर ऐसा नही है की चोट के डर से,
मैंने मुर्ति गढना छोड़ दिया है।
अक्षर अक्षर मिलकर शब्द बनते हैं,
शब्दों से रिश्तों की परिभाषा बयां होती है।
मैं नहीं जानता नहीं पहचानता बहुत से अक्षरों को,
पर ऐसा नही है की कुछ अक्षरों के अज्ञान से,
मैंने पढना छोड़ दिया हैं।
ये जानते हुए कि दूरियों से रिश्ते टूट जाते है
दूरियां बना ली है सबसे दूर रहकर।
पर ऐसा नहीं हैं कि अकेले-अकेले रहते हुए,
मैने अपनों से मिलना छोड दिया है।
चलते-चलते पाँव घायल है काँटों से जरूर
थककर ठहर गया हूँ थोड़ा विश्राम के लिए,
पर ऐसा नही है कि रूककर,
मैंने आगे बढना छोड़ दिया है।
मंजिल मेरी दूर तलक ऊँचाई पर है,
डरता हूँ ऊँचे लोगों की ऊँचाई से
पर ऐसा नही है की ऊँचाई के डर से,
मैंने ऊँचाई पर चढना छोड़ दिया है।
घटते-घटते शुन्य हो जाऊँ या बढते-बढते,
आखिरकार सबकुछ भाग होकर शुन्य हो जाऐगा।
पर ऐसा नहीं है कि शुन्य होने के डर से,
मैंने अंकों का गिनती करना छोड़ दिया है।
मैं भी मिट्टी तु भी मिट्टी, सब कुछ बना मिट्टी से,
और एक दिन सब कुछ मिट्टी हो जायेगा।
पर ऐसा नहीं है कि मिट्टी होने के डर से,
मैंने मिट्टी से नव निर्माण करना छोड़ दिया है।
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गोकुल कुमार पटेल
(इन रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शक बन सकती है, आप की प्रतिक्रिया के इंतजार में।)
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पत्थर का पुजारी हूँ, पुजता हूँ पत्थर को,
इस पर लोहार सा प्रहार कैसे करूँ,
पर ऐसा नही है की चोट के डर से,
मैंने मुर्ति गढना छोड़ दिया है।
अक्षर अक्षर मिलकर शब्द बनते हैं,
शब्दों से रिश्तों की परिभाषा बयां होती है।
मैं नहीं जानता नहीं पहचानता बहुत से अक्षरों को,
पर ऐसा नही है की कुछ अक्षरों के अज्ञान से,
मैंने पढना छोड़ दिया हैं।
ये जानते हुए कि दूरियों से रिश्ते टूट जाते है
दूरियां बना ली है सबसे दूर रहकर।
पर ऐसा नहीं हैं कि अकेले-अकेले रहते हुए,
मैने अपनों से मिलना छोड दिया है।
चलते-चलते पाँव घायल है काँटों से जरूर
थककर ठहर गया हूँ थोड़ा विश्राम के लिए,
पर ऐसा नही है कि रूककर,
मैंने आगे बढना छोड़ दिया है।
मंजिल मेरी दूर तलक ऊँचाई पर है,
डरता हूँ ऊँचे लोगों की ऊँचाई से
पर ऐसा नही है की ऊँचाई के डर से,
मैंने ऊँचाई पर चढना छोड़ दिया है।
घटते-घटते शुन्य हो जाऊँ या बढते-बढते,
आखिरकार सबकुछ भाग होकर शुन्य हो जाऐगा।
पर ऐसा नहीं है कि शुन्य होने के डर से,
मैंने अंकों का गिनती करना छोड़ दिया है।
मैं भी मिट्टी तु भी मिट्टी, सब कुछ बना मिट्टी से,
और एक दिन सब कुछ मिट्टी हो जायेगा।
पर ऐसा नहीं है कि मिट्टी होने के डर से,
मैंने मिट्टी से नव निर्माण करना छोड़ दिया है।
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गोकुल कुमार पटेल
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