GURU (गुरु)
गुरु शब्द जब कानों में गुंजायमान
होता है तो सबके ही मन में अलग-अलग चित्र चित्रित होता है कोई लम्बी दाढ़ी मूंछ, भगवा
वस्त्र एवं रुद्राक्ष की माला धारण किये हुए व्यक्ति को गुरु मानता है तो कोई चश्मा
पहने, हाथों में डंडा लिए हुए स्त्री पुरुष को गुरु मानता है l तो प्रश्न यह उठता है
कि क्या गुरु का निर्धारण वस्त्रों और वेशभूषा से होता है?
नहीं?
तो फिर गुरु कैसे होता है?
हम किसी को गुरु कैसे कहें?
या फिर हम किसको गुरु कहें?
इसका उत्तर देना बहुत कठिन
है क्योकि गुरु ज्ञान है और ज्ञान उस परब्रम्हा परमेश्वर की तरह अनंत है असीमित है?
इसको हम इस तरह से समझ सकते
है कि मनुष्य को अगर ज्ञान न मिले तो मनुष्य और पशु में अंतर करना असम्भव है और ज्ञान
कि प्राप्ति गुरु के बिना नहीं हो सकती है l और ज्ञान अनंत है असीमित है तब स्थिति
यह पैदा होती है की जहाँ से हमें ज्ञान मिलता है या जहाँ से हम ज्ञान प्राप्त करते
है गुरु कहलाता है।
“गुरु: मातु पिताः, गुरु: सखा, गुरु: बंधू बान्धवाः
l
गुरु: वसते कण-कण पृथ्वीभ्यः, गुरु:
ददाति ज्ञानं प्रकाशंते जनः” ll
अर्थात गुरु माता पिता है,
गुरु सखा है, गुरु बंधू बांधव भी है, गुरु तो पृथ्वी के कण- कण में बिराजमान है जिससे
व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश मिलता है वह गुरु होता है तात्पर्य यह हुआ की मनुष्य को
पग-पग में एक नए गुरु का साक्षात्कार होता है l
इस तरह तो गुरुओं की संख्या
अनंत हो जाती है l तब हम किसी एक को गुरु कैसे माने? इस प्रश्न का उत्तर बहुत जटिल
है l क्योकि गुरु की परिभाषा तो ईश्वर भी नहीं कर पाए तो मैं कैसे कर सकता हूँ l
मनुष्य के जीवन में अलग-अलग
व्यक्तियों की छाप अलग-अलग होती है, प्रेरणाएं अलग-अलग होती है l जरुरत होती है तो
बस उसे महसूस करने की, पहचानने की पर हमारे दिल वो दिमाग में हमने गुरु की जो छवि बनाई
है वह लोभ, लालच की चादर से ढकी हुई है l और उसी लालच वश हम मानते है कि गुरु हमें
आशीर्वाद देगा और हम परीक्षा में उत्तीर्ण हो जायेंगे, धनवान हो जायेंगें l इस तरह
सोचकर हम गुरु के मायने ही बदल देते है और भूल जाते है कि गुरु, गुरु है ईश्वर नहीं?
लेकिन हाँ?
गुरु हमारे आध्यात्मिक शक्ति
की उन्नति कर, हमारा पथ प्रदर्शक बनकर हमारे भाग्य का द्वार खोल सकता है जिससे हमारा
सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है और सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ते चले जाते है l गुरु एक माध्यम
होता है मंजिल तक पहुँचाने की, एक कड़ी होती है ब्रम्हत्व से जोड़ने की, एक रौशनी होती
है जो हमारे मन के अन्धकार को मिटा कर हमारे जीवन में ज्ञान का उजाला भर देती है। वास्तव
में सदगुरुदेव वही होता है जिनसे मिलकर रोम-रोम आनंद विभोर हो जाये आनंदमय हो जाये। जिनसे बिछड़कर मन व्याकुलता
तरह से भर जाये और जिनसे मिलकर या जिनके स्मरण से
ही श्रद्धा से आँखें भीग जाती हो। मन
में बार-बार यहीं ख्याल आयें की सब कुछ छोड़कर दौड़ कर उनके पास चला जाऊ और अपना सारा जीवन उन्हें समर्पित कर दूँ l मेरा
मन कहता है कि जिस किसी के प्रति मन में ऐसी श्रद्धा का प्रादुर्भाव हो वह निश्चय ही
गुरु कहलाने योग्य है।
(इन रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शक
बन सकती है, आप की प्रतिक्रिया के इंतजार में l)
गोकुल कुमार पटेल