कलम
मैं
तब भी उसके साथ था ।
जब
वो
कभी
दीवारों,
तो
कभी फर्श पर,
बनाता
था,
घोंसला
सा ।
टेढ़े
मेढ़े लकीरें खींचकर।
कोशिश
करता था,
कुछ
लिखने की,
समझने
की,
सीखने
की ।
मैं
तब भी उसके साथ था ।
जब
वो,
फेंक
देता था,
कचरे
सा,
किसी
कोने में ।
तोड़
देता था,
खीझकर,
चिढ़कर ।
मैं
तब भी उसके साथ था ।
जब
वो,
नासमझ
था,
सिमटे
हुए थे शब्द।
न
तौल था न मोल था,
थे
वे बोल,
जिनका
सिमटा
हुआ था अर्थ।
मैं
तब भी उसके साथ था ।
जब
वो,
लिख-लिखकर
सीख रहा था ।
सीख-सीख
कर लिख रहा था ।
चढ़
गया था,
लढ़खड़ाती
कदमों से,
अक्षर
से शब्द,
शब्द
से वाक्यों की सीढियाँ ।
मैं
अब भी उसके साथ हूँ,
जब
वो
डूबक
रहा है,
शब्द-सागर
में।
गोताखोर
की तरह,
निर्भीक
।
फर्क
बस इतना है,
छिपी
है प्रफुल्लित मन में,
एक
टीस ।
प्यासा
है समंदर में,
जैसे
सीप ।
रबड़
की तरह सिकुड़ गया हूँ।
तब
बचपनें में,
शब्द
सिमटें थे।
और
अब
चालाकी
में,
सिमट
गए है शब्द ।
(इन
रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शक बन सकती है, आप की प्रतिक्रिया के इंतजार
में l)
गोकुल
कुमार पटेल