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Monday 28 October 2013

कलम

कलम 



















मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो
कभी दीवारों,
तो कभी फर्श पर,
बनाता था,
घोंसला सा ।
टेढ़े मेढ़े लकीरें खींचकर।  
कोशिश करता था,
कुछ लिखने की,
समझने की,
सीखने की ।
मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो,
फेंक देता था,
कचरे सा,
किसी कोने में ।
तोड़ देता था,
खीझकर, चिढ़कर ।
मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो,
नासमझ था,
सिमटे हुए थे शब्द।
न तौल था न मोल था,
थे वे बोल,
जिनका
सिमटा हुआ था अर्थ।
मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो,
लिख-लिखकर सीख रहा था ।
सीख-सीख कर लिख रहा था ।
चढ़ गया था,
लढ़खड़ाती कदमों से,
अक्षर से शब्द,
शब्द से वाक्यों की सीढियाँ ।
मैं अब भी उसके साथ हूँ,
जब वो
डूबक रहा है,
शब्द-सागर में। 
गोताखोर की तरह,
निर्भीक ।
फर्क बस इतना है,
छिपी है प्रफुल्लित मन में,
एक टीस ।
प्यासा है समंदर में,
जैसे सीप ।
रबड़ की तरह सिकुड़ गया हूँ।
तब बचपनें में,
शब्द सिमटें थे। 
और अब
चालाकी में,   
सिमट गए है शब्द ।

















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गोकुल कुमार पटेल

Saturday 5 October 2013

GURU (गुरु)

GURU (गुरु)



गुरु शब्द जब कानों में गुंजायमान होता है तो सबके ही मन में अलग-अलग चित्र चित्रित होता है कोई लम्बी दाढ़ी मूंछ, भगवा वस्त्र एवं रुद्राक्ष की माला धारण किये हुए व्यक्ति को गुरु मानता है तो कोई चश्मा पहने, हाथों में डंडा लिए हुए स्त्री पुरुष को गुरु मानता है l तो प्रश्न यह उठता है कि क्या गुरु का निर्धारण वस्त्रों और वेशभूषा से होता है? 

नहीं?

तो फिर गुरु कैसे होता है?

हम किसी को गुरु कैसे कहें?

या फिर हम किसको गुरु कहें?

इसका उत्तर देना बहुत कठिन है क्योकि गुरु ज्ञान है और ज्ञान उस परब्रम्हा परमेश्वर की तरह अनंत है असीमित है?


इसको हम इस तरह से समझ सकते है कि मनुष्य को अगर ज्ञान न मिले तो मनुष्य और पशु में अंतर करना असम्भव है और ज्ञान कि प्राप्ति गुरु के बिना नहीं हो सकती है l और ज्ञान अनंत है असीमित है तब स्थिति यह पैदा होती है की जहाँ से हमें ज्ञान मिलता है या जहाँ से हम ज्ञान प्राप्त करते है गुरु कहलाता है।

                                          “गुरु: मातु पिताः, गुरु: सखा, गुरु: बंधू बान्धवाः l
                                 गुरु: वसते कण-कण पृथ्वीभ्यः, गुरु: ददाति ज्ञानं प्रकाशंते जनः” ll

अर्थात गुरु माता पिता है, गुरु सखा है, गुरु बंधू बांधव भी है, गुरु तो पृथ्वी के कण- कण में बिराजमान है जिससे व्यक्ति को ज्ञान का प्रकाश मिलता है वह गुरु होता है तात्पर्य यह हुआ की मनुष्य को पग-पग में एक नए गुरु का साक्षात्कार होता है l

इस तरह तो गुरुओं की संख्या अनंत हो जाती है l तब हम किसी एक को गुरु कैसे माने? इस प्रश्न का उत्तर बहुत जटिल है l क्योकि गुरु की परिभाषा तो ईश्वर भी नहीं कर पाए तो मैं कैसे कर सकता हूँ l


मनुष्य के जीवन में अलग-अलग व्यक्तियों की छाप अलग-अलग होती है, प्रेरणाएं अलग-अलग होती है l जरुरत होती है तो बस उसे महसूस करने की, पहचानने की पर हमारे दिल वो दिमाग में हमने गुरु की जो छवि बनाई है वह लोभ, लालच की चादर से ढकी हुई है l और उसी लालच वश हम मानते है कि गुरु हमें आशीर्वाद देगा और हम परीक्षा में उत्तीर्ण हो जायेंगे, धनवान हो जायेंगें l इस तरह सोचकर हम गुरु के मायने ही बदल देते है और भूल जाते है कि गुरु, गुरु है ईश्वर नहीं?

लेकिन हाँ?

गुरु हमारे आध्यात्मिक शक्ति की उन्नति कर, हमारा पथ प्रदर्शक बनकर हमारे भाग्य का द्वार खोल सकता है जिससे हमारा सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है और सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ते चले जाते है l गुरु एक माध्यम होता है मंजिल तक पहुँचाने की, एक कड़ी होती है ब्रम्हत्व से जोड़ने की, एक रौशनी होती है जो हमारे मन के अन्धकार को मिटा कर हमारे जीवन में ज्ञान का उजाला भर देती है। वास्तव में सदगुरुदेव वही होता है जिनसे मिलकर रोम-रोम आनंद विभोर हो जाये आनंदमय हो जाये।  जिनसे बिछड़कर मन  व्याकुलता  तरह से भर जाये और जिनसे मिलकर या  जिनके  स्मरण से  ही श्रद्धा से आँखें भीग जाती हो।  मन में बार-बार यहीं ख्याल आयें की सब कुछ छोड़कर दौड़ कर उनके पास चला जाऊ  और अपना सारा जीवन उन्हें समर्पित कर दूँ l मेरा मन कहता है कि जिस किसी के प्रति मन में ऐसी श्रद्धा का प्रादुर्भाव हो वह निश्चय ही गुरु कहलाने योग्य है। 


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गोकुल कुमार पटेल

Thursday 15 August 2013

15 August 2013

"१५ अगस्त २०१३ को स्वतंत्रता दिवस के ६७ वाँ अधिवेशन के पावन पर्व पर समस्त भारत वासियों को हार्दिक बधाई"



गोकुल कुमार पटेल 

Monday 15 July 2013

अनभिज्ञ

      अनभिज्ञ
















कुछ खास तो है जीवन,
जिसके लिए पैदा हुए है l
कर गुजरने की चाह भी है दिल में,
मकसद क्या है?
भले ही पता नहीं l
कुछ तो है?
जिसकी तलाश है,
ताकती है जिसे आँखें और मन l
बना है जिसके लिए जीवन,
क्या है वो?
भले ही पता नहीं l
कुछ सवाल तो है?
जहन में,
टीस से जो विचलित है l 
कोशिश करते रहते है,
जबाब ढुंढने की,
आश भी है जबाब मिलने की l
क्या सवाल है?
भले ही पता नहीं l
चलते जा रहे है, चलते जा रहे है,
रास्ते बन रहें है पगडण्डी सी l
भटक न जाये,
रास्तों में उलझ कर,
भूलते नहीं है लक्ष्य को इसीलिए l
मंजिल कहाँ है?
भले ही पता नहीं l
लड़ाई तो है?
तैयार हो रहे है जिसके लिए l
विचार दृढ़ है जज्बा बढ़ रहे है,
बार-बार चढ़ रहा है ,
उतर रहा है पारा l
किससे है जंग?
भले ही पता नहीं l

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गोकुल कुमार पटेल

Saturday 8 June 2013

भ्रष्टाचार की जड़

भ्रष्टाचार की जड़

भ्रष्टाचार का वृक्ष,
इतना तब ही बढे है l
घोटालों की खाद लेकर,
सब लाइन से खड़े है l
तब उसकी बारी थी,
अब उसकी बारी है l
हर एक कदम में,
एक नई घोटालें की तैयारी है l
कहीं भगवा, कहीं सफ़ेद पोश है l
किसी के पास समंदर है,
किसी पास सिर्फ ओस है l
हालाँकि
ये सब पुरानी है,
इसमें न कोई बात नई है l
पर ये सच है कि -   
पलते-पलते वृक्ष,
आकाश छू गई है l
हर तरफ अब फैली है,
भ्रष्टाचार की छाया l
बाबाओं, नेताओं से पूछो
तो कहते है,
बेटा –
यहीं तो है महंगाई की माया l
जनता नादान है l
न किसी को होश है,
न किसी को ध्यान है l
क्योकि ये खाद,
किसी दुकान में नहीं बिकते है l
मिश्रित खाद बनाना तो
सब हमसे ही सिखते है l
सच्चाई यही है कि
इससे हम सब की चादर मैली है l
भ्रष्टाचार की जड़ इतना,
हमसे ही फैली है l


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गोकुल कुमार पटेल

Wednesday 22 May 2013

“एक राहनुमा की मुझे तलाश है”

“एक राहनुमा की मुझे तलाश है”

किसे कहूँ मैं अपने मन की बात l
कैसे कहूँ मैं अपने मन की बात l l
कोई समझता नहीं,
कोई समझने की कोशिश करता नहीं l
सरपट भाग रहे है अंधेरों में,
राहों से भटक कर,
एक पल के लिए कोई ठहरता नहीं l l
कभी तो थकेंगें, कभी तो रुकेंगे,
ये मैंने जाना है l
उनके पीछे पीछे दौड़ रहा हूँ,
मैंने हार नहीं माना है l l
कब तक दौड़ता रहूँगा,
उनके पीछे,
अनजानी ये आस है l
तब भी समय न उनके पास था, 
न अब ही समय उनके पास है l l
अब तो भागते भागते,
खुद ही भटक गया हूँ,
आँखें है पथराई, लवों पे प्यास है l
किसे कहूँ, कैसे कहूँ मैं अपने मन की बात l l
कोई तो रास्ता सुझा दे मेरा,
एक राहनुमा की मुझे भी तलाश है l l


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गोकुल कुमार पटेल

Saturday 4 May 2013

क्या? कभी? ऐसा? मेरा सपनों का गांव होगा?


क्या? कभी? ऐसा?
मेरा सपनों का गांव होगा?

साफ सुथरी होगी चहुँ ओर,
कही पर न गन्दगी होगा l
चिड़ियों की मधुर चहचाहट होगी
कदम-कदम पर वृक्षों का छांव होगा l l
सोना उगलेंगा तब धरती
मिटटी का न कहीं कटाव होगा l
चारों तरफ से शोंधी खुशबू आएगी,
हर घर में हलवा-पूरी, पुलाव होगा l l
न कोई रोयेगा, न कोई भूखे पेट सोयेगा
मीठी-मीठी नींद में सुनहरे सपने हर कोई संजोयेगा,
स्वच्छ जल होंगें, स्वच्छ गगन होगा l
स्वच्छ सड़कें होंगी, स्वच्छ जीवन होगा l l
शिक्षा का दीप जलेगा, बच्चे-बच्चियां सभी पढेंगे l
जाती-पाती, उंच-नीच के भेदभाव के बिना ये बढेंगें l l
न कोई भ्रष्ट होगा, न कोई भ्रष्टाचार होगा
न कोई शोषित होगा, न कोई धार्मिक व्यापार होगा
चारों तरफ खुशियों का उन्मुक्त बहाव होगा
क्या? कभी? ऐसा? मेरा सपनों का गांव होगा?



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गोकुल कुमार पटेल

Wednesday 3 April 2013

राम भक्ति


राम भक्ति


ज्ञानियों के मन को ,राम नाम भाया है l
सबके जुबान पर भी, राम नाम आया है l l
एक राम नाम सच्चा जग में, बाकि सब मोह माया है l
निराकार, निराधार वो तो, कण कण में समाया है l l
ज्ञानियों के मन को ………………………………….……… कण कण में समाया है l l

मतकर घमंड इस तन पर, मिटटी का बना ये काया है l
प्रभु ने इसको कभी एक पल में बनाया, तो कभी एक पल में मिटाया है l l
ज्ञानियों के मन को ………………………………….……… कण कण में समाया है l l

झूटी शान के मोह में फंसकर, तूने कितना धन कमाया है l
यहाँ से लेकर वहां तक की, धरती को अपना बताया है l l
तुझे जरुरत है पांच फिट जमीं की ही, ज्ञान कर ऐ मुरख ये सब अपना नहीं पराया है l
ज्ञानियों के मन को ………………………………….……… कण कण में समाया है l l

सब कुछ तो मिल जाता है,यहाँ मोलने में l
कम ही होता है, अकसर वो तौलने में l l
एक नाम को तौल कर देखो, नित नित बढ़ता जाता है,
अब तक सबने सब को दिया, फिर भी दाम किसी ने नहीं लगाया है l
ज्ञानियों के मन को ………………………………….……… कण कण में समाया है l l

दुखो से लड़कर जीने का आस वो देता है l
निर्बुद्धि को भी ज्ञान का प्रकाश वो देता है l l
कभी घबराना नहीं, तेरे सर पर राम का साया है l
ज्ञानियों के मन को ………………………………….……… कण कण में समाया है l l


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गोकुल कुमार पटेल

Saturday 16 March 2013

सपना है या अनुभूति - 9


सपना है या अनुभूति - 9

प्रकृति के संतुलन को बनाये रखने में पेड़ पौधों का जितना योगदान है उसकी व्याख्या कर पाना असंभव है l पेड़ पौधों से धरा जब सजती है तो पकृति का हर प्राणी मन्त्रमुग्ध हो उसकी खूबसूरती की ओर सहज ही खींचे चले आते हैl कहा जाता है पृथ्वी में जितने प्रकार के जीव जन्तु है उतनी ही प्रकार के  पेड़ पौधे की किस्में भी पाई जाती है  देखा जाये तो हर एक कदम पर एक नए किस्म के पेड़-पौधे देखने को मिल जाती है l जब भी कोई नया किस्म का पेड़ पौधे मिल जाये तो बरबस ही निगाहे उसकी और खींची चली जाती है l ऐसा ही मेरे साथ हुआ हमारे गांव के तालाब के मेढ़ पर एक नया किस्म का पेड़ उग आया था और मेरी निगाहे हमेशा उसकी और टकटकी लगाये रहती थी l कई लोगो से मैंने पूछा की यह कौन सा पेड़ है? पर कोई इसे जामुन कहता, कोई इसे चीकू बताता, कोई इसे आम का पेड़ ही कहता था l तो कोई इसे जंगली पेड़ है कहकर चलता बनता था l सबके अलग-अलग जबाब से मैं परेशान हो गया l इसीलिए अब तो बाकि लोगो से मैंने पूछना ही छोड़ दिया l लेकिन मन है की मानता ही नहीं था l  आते जाते रह रहकर मेरी आँखें उस तरफ चली ही जाती थी और मैं मन मसोसकर रह जाता था l किसी को यह नहीं पता था कि यह कौन सा पेड़ है तो इसे यहाँ लगाया किसने? या फिर यह यहाँ आया कैसे? कई इस तरह के सवाल थे जिनका जबाब मुझे नहीं मिल पा रह था l जब भी मेरी नजर उस पेड़ कि तरफ जाती मैं बेचैन हो उठता था लेकिन मैं यह भी समझ गया था की इसका जबाब कोई नहीं दे सकता है और जब तक इसमें फुल या फल नहीं लग जाते तब तक इसके बारे मैं पता भी नहीं लगाया जा सकता है l इसलिए मैंने मन में ठान लिया कि मैं इंतजार करूँगा तब तक, जब तक इसमें फुल और फल नहीं लग जाते l 

मौसम करवट बदल रहा था, बसंत आ रहे थे, जा रहे थे,  पतझड़ आ रहे थे, जा रहे थे ऐसे करते-करते न जाने कितने साल व्यतीत हो गए l  वह छोटा सा पौधा अब पेड़ बन गया था लेकिन कभी ऐसा नहीं हुआ कि मेरी निगाहें उस पर न पड़ी हो l एक दिन मैं उसके पास से गुजर रहा था कि मेरे पैर अचानक से रुक गए आखें खुली कि खुली ही रह गई l धड़कन तेज चलने लगी होंठों पर एक मुस्कान तैरने लगी और मन कहने लगा कि अब मेरा इंतजार ख़त्म होने वाला है उस पेड़ कि टहनियों पर काली-काली, पतली-पतली, लम्बी-लम्बी रेशा युक्त टहनी निकल आये थे जो मेरी जिज्ञासा और बढ़ा रहे थे l क्योकि मुझे पता नहीं चल पा रहा था कि ये फुल है या फल, बहरहाल सब्र कर रहा था कि इंतजार करते-करते इतने दिन हो गए है तो कुछ दिन और सही, जैसे -जैसे दिन पर दिन बीत रहा था उन पतली टहनियों पर धीरे-धीरे काली-काली कलियों का आगमन हो रहा था l पर पता नहीं मेरी बेचैनी थी  या फिर कलियों का विकास ही रुक गया था, क्योकि सामान्यतः सभी पेड़-पौधों में कलियों से फुल खिलने में तीन से चार दिन लगता है पर यहाँ तो एक सप्ताह बीत गया था लेकिन उन कलियों में फुल नहीं आया था l शनैः -शनैः समय का चक्र चलता जा रहा था और दस दिन बीत जाने के बाद अब जाकर कहीं उन कलियों पर गुलाबी रंग के छोटे-छोटे पंखुड़ियों का आगमन हो रहा था l

अब तक गांवों में वह पेड़ कौतुहल का विषय बन गया था सभी आपस में चर्चा कर रहे थे कि यह कौन सा पेड़ होगा l ऐसा पेड़ तो कहीं देखा ही नहीं है, तो कोई कह रहा था कि देखा क्या मैं तो कहता हूँ ऐसा पेड़ कहीं है ही नहीं l पंखुडियां बढ़ गई पर पूरी तरह से फुल नहीं बन पाई l  कुछ दिन बाद मैंने देखा की वे गुलाबी-गुलाबी पंखुडियां नीचे गिरे पड़े है मेरी नजर ऊपर टहनियों की तरफ गई तो मैं असमंजस में पड़ गया क्योकि पंखुड़ियों के नीचे का काला सिरा जिससे फल बनाना चाहिए था गायब है l  मेरी नजर पुनः नीचे जमीन पर आकर इधर-उधर वह काला वाला हिस्सा तलाशने लगी की वह हिस्सा कहीं तो मिलेगा पर सारी मेहनत बेकार वहां कुछ रहेगा तो ही तो कुछ मिलेगा l  तो फिर आख़िरकार वह हिस्सा गया कहाँ? क्या उसे कोई और उठा कर ले गया? पर इतनी सुबह तो कोई उठता नहीं है फिर कैसे कोई ले जा सकता है l मेरे मन में ऐसे ही कुछ सवाल घर कर गए l मैंने सोचा की आज रात मुझे यही रहकर देखना पड़ेगा की पंखुडियां ही गिरती है या पंखुड़ियों के साथ फल भी गिरता है l और पंखुड़ियों के साथ फल गिरता है तो जाता कहाँ है?

शाम होते ही आज मैंने जल्दी खाना खा लिया और एक पानी का बोतल लेकर उसी पेड़ के समीप स्थित मंदिर के आड़ में दुबककर बैठ गया l चांदनी रात थी,  फिर भी मुझे डर लग रहा था क्योकि साथ देने के लिए मेरे साथ कोई नहीं था  चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था और अब जाकर मुझे अपनी गलती का एहसास होने लगा था l  सोच रहा था कि साथ में किसी दोस्त को भी ले आना चाहिए था l लेकिन लाता भी किसे क्योकि सभी दोस्तों को मैं बखूबी जानता था मेरे लाख कहने पर भी सभी कोई न कोई बहाना बना कर मुकर जाते l पर कोशिश तो करनी ही चाहिए था मैंने तो वो भी नहीं की और अब पछताने से क्या लाभ जब चिड़िया चुक गई खेत l झींगुर की आवाज और निशाचरों  की चलने की सरसराहट ने माहौल को डरावना बना दिया था l

कभी मेरी निगाहें हाथ कि घडी पर जाती तो कभी उस पेड़ कि तरफ उठती ऐसे करते-करते मैंने आधी रात बीता दिया था पर अभी तक कुछ भी घटित नहीं हुआ था l  आँखें थक चुकी थी और विश्राम पाने के लिए आँखों की पलक को लगातार झपकने लगी थी तभी अचानक मैंने देखा कि उस पेड़ से कुछ गिर रहा है l मैं सहसा उठ खड़ा हुआ और पेड़ की उस भाग की तरफ लपका जिधर कुछ गिरते हुए देखा था पर वहां फुल की कुछ पंखुडियां गिरी पड़ी थी मैं नजरे ऊपर उठाकर पेड़ की तरफ देखने लगा तब जो नजारा मैंने देखा वह मेरे दिल वो दिमाग को झंझोर कर रखा दिया l मुझे विश्वास नहीं हो रहा था की क्या ऐसा भी हो सकता है कि पेड़ से वे फल और पंखुडियां एक साथ गिर रही हो और गिरते -गिरते फल से पंखुडियां अलग हो जाती हो और और फल में अचानक पंख लग जाते हो और जमीन पर गिरने से पहले ही वह पक्षी बन कर उड़ने लग जाती हो l वह नजारा मुझे विस्मित किये जा रहा था, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था और मैं कुछ सोचने कि कोशिश करूँ उससे पहले ही एक फल मेरे सामने गिर और वह पक्षी बन गया और मेरी तरफ झपटने  लगा उसकी लाल -लाल आँखें देखकर मैं चौंक गया और वही किया जो उस परिस्थिति में हर एक इन्सान करता डर से मैंने आँखें बंद कर ली पर डर का वह पल  मेरे धड़कनों कि रफ़्तार तेज कर दी थी जब धड़कनें सामान्य गति से चलने लगी तो मैंने देखा कि चांदनी रात अब अमावस्या कि काली रात बन गई है चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा नजर आ रहा था l  आँखों पर जोर दिया तो पाया कि मैं बिस्तर में लेटा हुआ हूँ l तो क्या यह एक भयानक सपना था? क्या सपने ऐसे भी हो सकते है? या फिर यह मेरे मन में छिपे किसी सोच का असर है? बचपन में हमने पढ़ा था कि एक ऐसा पेड़ भी होता है जिससे रस निकल है और मिस्र नदी में गिरकर बतख बन जाता है l तो क्या बचपन के दिनों में पढ़ी हुई घटना सपना बनकर दृश्यांकित हुआ?  या फिर यह कुछ और है? जो भी हो इस amazing tree के सपने ने मुझे रोमांचित कर दिया है l

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आपका

गोकुल कुमार पटेल

Friday 8 March 2013

फिर से बरखा रोई

फिर से बरखा रोई


तारों भरी रात में, खामोश थी जमीं,
न जाने फिर किसके यादों में वो खोई l
दुःख था उसको प्रियत्तम का शायद,
जो फिर से बरखा रोई ll
चमक गया आँसमा भी,
आँखों से उसकी जब चमकी बिजली l
सिहर गया धरती का दिल,
दर्द से जब बरखा चींखी ll
गिरने लगे उसके आंसू जब,
धरती पर बाड़ आ गया l
सारी दुनिया चीखने चिल्लाने लगी,
जाने कैसा भौचाल आ गया ll
एक दिन से दो दिन से, तीन दिन बीत गए,
बारिश फिर भी नहीं थमीं थी l
झांक कर मैंने उसके चेहरे को देखा,
आँखों में अब भी वही नमी थी ll
सप्ताह बीत गया पर, एक पल थमी न वर्षा,
न एक पल बिजली सोई l
दुःख था उसको प्रियत्तम का शायद
जो फिर से बरखा रोई ll


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गोकुल कुमार पटेल 

Thursday 21 February 2013

क्या फूलों का वार्षिक स्राव होता है? (गुडहल)


क्या फूलों का वार्षिक स्राव होता है? (गुडहल)


म अगर प्रकृति की सौन्दर्य की बातें करें तो सबसे पहले हमारे आँखों के सामने जो तस्वीर उभर कर आयेगी वह कोई न कोई फुल का ही नाम ही होगा l  और होगा भी क्योकि अपवाद स्वरुप कुछ ही मनुष्यों को छोड़कर दुनिया का हर शख्स फूलों से प्यार करता है, फूलों की तरफ आकर्षित होता है तो फिर मैं इससे अछूता कैसे रह सकता हूँ l और जनाब उसी प्रेम के वशीभूत होकर मैंने घर के आँगन में फूलों की एक छोटी सी दुनिया बना ली है और उन्ही फूलों के बीच एक सुन्दर सा फुल का पौधा है, चित्र देखकर आप जान ही गए होंगे कि मैं किसके बारे में बताने जा रहा हूँ?

तो आप सोचेंगे की हाँ इसके बारे में कौन नहीं जानता ये तो गुडहल है l  बिलकुल सही दोस्तों सही पहचाना आपने ये गुडहल ही है, प्रायः यह सभी क्षेत्रों में पाए जाने वाला एक बहुवर्षीय झाड़ीदार पौधा है इसके पत्ते लम्बवत अंडाकार किनारे से धारी युक्त होते है और यह कई प्रकार के भिन्न-भिन्न रंगों पाई जाती है l  इसका उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों में विशेष कर दुर्गा पूजन में किया जाता है  क्योकि यह धार्मिक दृष्टि से शक्ति का प्रतीकात्मक फुल होने के साथ-साथ यह आयुर्वेदिक दवाओं में भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है l तब भी आप कहेंगे की हाँ इतना तो हमें भी पता है इसमें और अलग क्या है?

इसके बारे में आपको एक ऐसा राज बताने जा रहा हूँ जिसको शायद कुछ ही लोग जानते होंगें या सुने होंगे l  जैसे कुछ दिन पहले तक मैंने सुन रखा था तब मुझे विश्वास नहीं हो रहा था मन में तरह-तरह के प्रश्न उठते थे कि क्या ऐसा भी होता है लेकिन कहते है न "हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या" आपको आश्चर्य होगा कि जो गुडहल का पौधा लगा है उसका फुल सफ़ेद रंग का है और हमेशा सफ़ेद रंग का ही खिलता है l सिर्फ साल में एक फुल को छोड़कर l हां दोस्तों एक साल में एक बार दीपावली के आसपास इसका एक फुल गुलाबी रंग का खिलता है l ग्रामीण क्षेत्रों में इसे फुल का वार्षिक स्राव कहा जाता है l और फुल को सहेज कर रखा जाता है विज्ञान भले ही इसको फुल का वार्षिक स्राव न माने, इसका कुछ और भी अर्थ निकाले पर यह सत्य है l क्या वास्तव में फूलों का वार्षिक स्राव होता है? आखिर इसमें कैसे एक फुल का रंग अलग हो जाता है? ऐसे ही न जाने कितने सवालों के जबाब के इंतजार में ........


आपका
गोकुल कुमार पटेल

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Thursday 7 February 2013

सरस्वती वंदना


सरस्वती वंदना


हे ज्ञान की देवी , अज्ञान से हमको तार दे
ख़त्म हो न ऐसा, ज्ञान का हमें भंडार दे
हे स्वरों की देवी, हे हंसवाहिनी,
हे करुणामयी, हे वाणी दायिनी 
हे श्वेत वस्त्रधारिणी , हे वीणा वादिनी,
गूंज उठे चारों दिशाओं में जय तेरी,
ऐसी वीणा की झंकार दे ।।
हे ज्ञान की देवी , अज्ञान से हमको तार दे 
ख़त्म हो न ऐसा, ज्ञान का हमें भंडार दे ।।
हे शीतलता की देवी , हे ज्ञान नंदिनी ,
हे शांति की देवी , हे अशांति खंडिनी 
हे माँ शारदे , तू है हमारी बंदिनी,
अज्ञान के अन्धकार को मिटा सके,
रोशनी ऐसी अपार दे ।।
हे ज्ञान की देवी , अज्ञान से हमको तार दे 
ख़त्म हो न ऐसा, ज्ञान का हमें भंडार दे 



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गोकुल कुमार पटेल