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Wednesday 28 January 2015

काश! माँ का वही आँचल मिले

“काश! माँ का वही आँचल मिले”

दिल का मैं साफ,
मन का सच्चा।  
भारत के गोद में जन्मा,
मैं भारत का बच्चा।
लिख पढ़ बड़ा हुआ। 
अपने पांव पर खड़ा हुआ। 
अब किसी से नहीं डरता हूँ। 
अपना दम ही मैं भरता हूँ।
भूलकर सब यार प्यार,
छोड़कर सब घर परिवार
अमेरिका में नौकरी करता हूँ। 
माँ बाप, भाई बहन,
सबका अस्तित्व खो गए है।
तो क्या हुआ?
मेरे हर सपने तो पुरे हो गए है।
देश विदेश अब, सब एक जैसा है।
आँखों के आगे अब सिर्फ पैसा ही पैसा है।
लन्दन का गद्दा, जापान की टी.वी. है।
बच्चों का पता नहीं मैं क्या बोलूँ,
पर जर्मन की बीबी है।
देखने में हम सबका एक ही छत है। 
सबका पर अलग नजरिया है,
सबका अलग-अलग ही मत है।
बीबी क्लब जाती है,
बच्चे जाते है डिस्को।
अपने से ही सबको फुरसत नहीं,
कोई क्या बोलेगा किसको।
बच्चों से कभी मुलाकात नहीं होती,
बीबी से भी कभी बात नहीं होती ।
दिन शुरू होता है इनका रातों से.
रात तो इनके लिए,
कभी रात नहीं होती।
अनाज ज्यो का त्यों है,
सब्जी फ्रिज में ही सड़ता है। 
बर्तन की चमक बरक़रार है, 
चूल्हे में कभी-कभी ही जो चढ़ता है।
पैकेटों का नाश्ता है,
पैकेटों का ही खाना है। 
नीरस से जीवन का,
बस यही ताना बाना है।
जानवरों सी जिंदगी,
न सुख-दुःख है, न ही नफरत और प्यार है। 
अब मैंने जाना है
परिवार के वगैर जीवन बेकार है।
हो रहा है अब मुझे,
परिवार से विछुडने का अहसास,
काश!
मुझे भी प्रायश्चित का एक अवसर मिलें।
काश! लौट आये वे दिन,
वहीं गली वहीं मोहल्ला,
वहीं आँगन से दिखता अम्बर मिले।
वहीं बाप का दुलार हो,
वहीं बहन की शरारत भरी मस्ती,
गुज़रा हुआ मुझे, हर एक वो पल मिलें।
बेफिक्र हो कर सो जाऊं,
वही माँ की गोद हो,
सर को ढकती,
काश! माँ का वही आँचल मिले।
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गोकुल कुमार पटेल


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Friday 2 January 2015

हिन्दू ! अपना वजूद खोते चले गए

हिन्दू ! अपना वजूद खोते चले गए














हमने कुछ किया नहीं,
ये सब तो अपने आप होते चले गए ।
निशक्त कमजोर जानकर हमने,
बस पनाह दिया था उन्हें,
आकर वे,
सबको माया ताल में डुबोते चले गए।
धन्य थी लालच की यह माया,
उस समय मेरे भी समझ में कुछ नहीं आया
धन लूटा, मन लूटा, लूटकर काया
वे सीने में खंजर चुभोते चले गए ।
रक्त रंजित था तलवार,
रक्त रंजित थी पृथ्वी की सारी सतह,
हर तरफ बिखरे थे नरमुंड,
घायलों की पीड़ा थी अथाह,
निस्सहाय होकर हम,
दुखो को आसुओं से भिगोते चले गए ।
वे छांट छांटकर काट रहे थे,
लूट कर हमसे सारा अन्न,
आपस में ही बाँट रहे थे,
निर्दयता से नोच नोचकर,
इज़्ज़त!
वे पापों के बीज बोते चले गए ।
कुछ को मार दिया गया,
कुछ भूख से मरने लगे,
आत्मरक्षा के खातिर,
हम भी,
अपना वजूद खोते चले गए ।
कोई ईसाई तो कोई मुस्लिम होते चले गए ।
सभ्यता को रौंदा गया,
संस्कृति भी दफन हो गया, 
अब तो हालात ऐसे है, 
भूलकर सबकुछ हम, 
कुसंस्कृति का बोझ ढोते चले गए।  



गोकुल कुमार पटेल


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