भ्रष्टाचार
की जड़
भ्रष्टाचार
का वृक्ष,
इतना
तब ही बढे है l
घोटालों
की खाद लेकर,
तब
उसकी बारी थी,
अब
उसकी बारी है l
हर
एक कदम में,
एक
नई घोटालें की तैयारी है l
कहीं
भगवा, कहीं सफ़ेद पोश है l
किसी
के पास समंदर है,
किसी
पास सिर्फ ओस है l
हालाँकि
ये
सब पुरानी है,
इसमें
न कोई बात नई है l
पर
ये सच है कि -
पलते-पलते
वृक्ष,
आकाश
छू गई है l
हर
तरफ अब फैली है,
भ्रष्टाचार
की छाया l
बाबाओं,
नेताओं से पूछो
तो
कहते है,
बेटा
–
यहीं
तो है महंगाई की माया l
जनता
नादान है l
न
किसी को होश है,
न
किसी को ध्यान है l
क्योकि
ये खाद,
किसी
दुकान में नहीं बिकते है l
मिश्रित
खाद बनाना तो
सब
हमसे ही सिखते है l
सच्चाई
यही है कि
इससे
हम सब की चादर मैली है l
भ्रष्टाचार
की जड़ इतना,
हमसे
ही फैली है l
(इन
रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शक बन सकती है, आप की प्रतिक्रिया के इंतजार
में l)
गोकुल
कुमार पटेल