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Monday 28 October 2013

कलम

कलम 



















मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो
कभी दीवारों,
तो कभी फर्श पर,
बनाता था,
घोंसला सा ।
टेढ़े मेढ़े लकीरें खींचकर।  
कोशिश करता था,
कुछ लिखने की,
समझने की,
सीखने की ।
मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो,
फेंक देता था,
कचरे सा,
किसी कोने में ।
तोड़ देता था,
खीझकर, चिढ़कर ।
मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो,
नासमझ था,
सिमटे हुए थे शब्द।
न तौल था न मोल था,
थे वे बोल,
जिनका
सिमटा हुआ था अर्थ।
मैं तब भी उसके साथ था ।
जब वो,
लिख-लिखकर सीख रहा था ।
सीख-सीख कर लिख रहा था ।
चढ़ गया था,
लढ़खड़ाती कदमों से,
अक्षर से शब्द,
शब्द से वाक्यों की सीढियाँ ।
मैं अब भी उसके साथ हूँ,
जब वो
डूबक रहा है,
शब्द-सागर में। 
गोताखोर की तरह,
निर्भीक ।
फर्क बस इतना है,
छिपी है प्रफुल्लित मन में,
एक टीस ।
प्यासा है समंदर में,
जैसे सीप ।
रबड़ की तरह सिकुड़ गया हूँ।
तब बचपनें में,
शब्द सिमटें थे। 
और अब
चालाकी में,   
सिमट गए है शब्द ।

















(इन रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शक बन सकती है, आप की प्रतिक्रिया के इंतजार में l)


गोकुल कुमार पटेल

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