क्या? बेटियों
को जीने का अधिकार नहीं?
हर
बार ही जनता,
सबकुछ
चुपचाप खड़े देख लेता है।
हर
बार ही कोई न कोई,
बेटियों
को चलती बस से नीचे फेंक देता है।
नोच
खसोट कर हैवान की तरह,
निष्प्राण,
बेजुबान सामान की तरह।
क्या
जीवनदायिनी लता का कोई आधार नहीं।
क्या
बेटियों को जीने का अधिकार नहीं।
आरम्भ
से अब तक,
बेटियों
का ही शोषण हुआ है।
क्या
बस! वासना की तृप्ति के लिए ही,
बेटियों
का पोषण हुआ है।
कभी
कोख से गिरा दिया जाता है,
तो
कभी बस से।
कभी
झूल जाती है फांसी पर क्यों,
समाज
के अपयश से।
हर
बार ही दरिंदे,
दरिंदगी का नया रास्ता चुनते है।
हर
हादसों की आवाज,
राज्य
से लेकर संसद तक गूंजते है।
मौन
रहती है सरकार हर बार,
जैसे
बेटियों से उनका कोई सरोकार नहीं।
क्या
बेटियों को जीने का अधिकार नहीं।
हर
बार ही बेटियों के लिए,
एक
नया कानून बना दिया जाता है।
हक़
अधिकार की क्या औकात,
परिपक्वता
की उम्र भी तो घटा दिया जाता है।
क्यों
होता है जुल्म इतना बेटियों पर,
माता
के ही देश में।
क्यों
लूट ली जाती है, रौंद दी जाती है,
बेटियों
की इज्जत,
कानून
के भेश में।
क्यों
चुप हो जाते है माँ-बाप और भाई,
जैसे
बेटियों का कोई परिवार नहीं।
क्या
बेटियों को जीने का अधिकार नहीं।
हर
बार पार्टियां अपनी ही,
राजनीति
का दम भरते है।
कन्या
सुरक्षा, महिला सशक्तिकरण,
की
हरदम बाते करते है।
लेकर
जिम्मेवारी समाज का ।
व्यापार
करते है बेटियों के लाज का।
जैसे
दुनिया में दूसरा कोई कारोबार नहीं।
क्या
बेटियों को जीने का अधिकार नहीं।
बेटियों
अपना आत्मरक्षा अब तुम्हें ही करना है।
असभ्य, अमर्यादित समाज से अब तुम्हें ही लड़ना है।
पथराई
आँखों से अब आंसू नहीं,
तेजाब
निकलने दो।
सीने
की धधकती ज्वाला से.
धरती
आकाश पिघलने दो।
फैला
दो बांहे, अब दबी कराह निकलने दो।
सिस्कारों
में छिपी, अब दहाड़ निकलने दो।
रौद्ररूपी चंडी सा शेष अब,
तेरा क्या कोई अवतार नहीं।
तो
सचमुच बेटियों, तुम्हें जीने का अधिकार नहीं।
तो
सचमुच बेटियों, तुम्हें जीने का अधिकार नहीं।
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गोकुल कुमार पटेल
(इन रचनाओ पर आपकी प्रतिक्रिया मेरे लिए मार्गदर्शक
बन सकती है, आप की प्रतिक्रिया के इंतजार में l)
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