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Tuesday 10 July 2012

सपना है या अनुभूति -3


सपना है या अनुभूति -3



               कुछ ही दिन हुए थे मुझे गुरूजी से जुड़े हुए, मैं ज्यादातर समय उन्हीं के पास इधर-उधर घूमता रहता था l मैं बिना किसी रोक टोक के बेधड़क, बेहिचक कभी भी हर छोटी-बड़ी तकलीफों, कष्टों के लिए सीधे गुरूजी के पास चला जाता था l बाकि सारे गुरु भाई (शिष्य) उनसे इस तरह से नहीं मिल पाते थे मुझे अपने आप पर गर्व था, की मैं उनका सबसे  ज्यादा चहेता शिष्य बन गया हूँ l

ऐसे ही एक दिन जब मुझे एक छोटी सी कष्ट सताने लगा और कष्ट तो कष्ट होता है इसमे छोटी क्या और बड़ी क्या, मैं आदतन उस कष्ट के निवारण के लिए सुबह-सुबह ही सीधा गुरूजी के पास पहुँच गया l उस दिन मुझे गुरूजी के दर्शन के पहले ही गुरुमाता के दर्शन हो गए, देखा गुरुमाता आज थोड़ी गुस्से में लग रही थी l मेरा अनुमान सही निकला मुझे देखते ही झल्लाए सी बोली - आ गए ? मैंने हाँ कहकर अभिवादन किया पर उन्होंने मेरे अभिवादन को अनसुना करते हुए उसी स्वर में बोली - आज फिर कोई परेशानी आ गई होगी ? आज फिर कोई कष्टों ने घेर लिया होगा? मैं निरुत्तर बौखलाए मौन खड़ा था क्योकि गुरु माता की वाणी में जो कठोरता थी वह मुझे असमंजस में डाल रही थी आज मैं गुरुमाता के जिस रूप का प्रतिकार कर रहा था उसकी मैंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी मुझे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था की आज गुरु माता को क्या हो गया? आज गुरुमाता मुझसे गुस्से में बातें क्यों कर रही है मुझे क्यों डांट रही है ? फटकार क्यों रही है ?

गुरु माता मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रही थी और वाणी में वही कठोरता लिए बोले जा रही थी - जब भी कोई समस्या आती है सीधे यहाँ चले आते हो? गुरूजी कब क्या करते है जैसे इसका तुम्हें पता ही नहीं? तुम्हे लगता होगा की गुरूजी सिर्फ तुम्हारे लिए ही यहाँ बैठे है? अरे हाँ - तुम तो उनके चहेते शिष्य हो यहाँ कभी भी आ- जा सकते हो है न? मैं पूछती हूँ जब तुम इतने ही गुरूजी के प्रिय शिष्य हो तो क्यों हर समस्यों के लिए तुम्हे यहाँ आना ही पड़ता है ? क्यों हर समस्या गुरूजी को बतानी पड़ती है ? क्यों तुम्हारी आवाज गुरूजी के पास नहीं पहुचती ? क्यों तुम्हारी पीड़ा, तुम्हारे कष्ट का गुरूजी को एहसास नहीं होता? क्यों तुम्हारा मन गुरूजी के अंतर्मन से जुड़ नहीं पा रहा है?

गुरुमाता लगातार प्रश्न पर प्रश्न किये जा रही थी और उनकी एक-एक बाते एक-एक प्रश्न मेरे कलेजे को तार तार कर रही थी  मैं इस पीड़ा को सहन नहीं कर पा रहा था दुःख से मेरे आंसू गिरने लग गए थे यह दुःख इस बात का नहीं था की गुरु माता मुझे डांट रही है फटकार रही , अरे - कहते है न माता की हर डांट फटकार बच्चे को गुमराह होने से बचाती है, नई सीख देती है, सही मार्ग दर्शन करती है , फिर उनकी बातें मुझे पीड़ा कैसे देती? कैसे मैं उनसे रुष्ट हो सकता था, यह दुःख यह वेदना तो आत्मबोध का था, जो आज मुझे गुरु माता करा रही थी जिस मार्ग से मैं भटक जा रहा था उसका सही मार्गदर्शन करा रही थी आज मैं जान पाया था की मैं गुरूजी से कितना दूर हूँ? गुरु को कितना आत्मसात कर पाया हूँ? सही मायने में गुरु शिष्य के सम्बन्ध को आज पहचान पाया था?  आज मुझे पता चला की मेरी साधनाएँ कितनी अधूरी है और उनके जोर पर मैं इतना उछल रहा था मेरी चाटूरकता मेरे घमंड ने मुझे आगे कर दिया था l इसका एहसास आज मुझे हो रहा था की शिष्य के उस कतार की बातें कर रहा था उसमें मेरा स्थान तो था ही नहीं, मेरे मन में जो अहम्, जो घमंड पनपने लग गए थे उनका अंत हो गया था मैं उस दुःख के बोझ से दबा जा रहा था और अंततः उस बोझ को मैं सहन नहीं कर पाया मेरे पैर लड़खड़ाने लगे और मैं दुःख से वही पर निढाल हो गयाl

सुबह जब आँखे खुली तो मेरा मन प्रफुल्लित था की सही मायने में मैं उनका शिष्य हूँ तभी तो उन्होंने मुझे आत्मबोध कराया l मेरा चेहरा चमक रहा था की मेरे साधनाओं को सही मार्गदर्शन तो मिल रहा है, मैं कृतार्थ हो गया की आज मैंने सपने में ही सही गुरु माता के दर्शन तो किये l ये गुरुदेवजी की महिमा ही तो थी की उन्होंने इस तुक्ष बालक का ख्याल रखा और मन में पनपने वाली विकारों का नाश किया l मैं उस सदगुरुदेवजी को कोटि कोटि प्रणाम करता हूँ l

उस ब्रम्ह स्वरुप गुरुदेवजी के अंतर्मन से मन की तार जोड़ने की कोशिश में ...................


आपका अपना 

गोकुल कुमार पटेल





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